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जिस साथी के दुःख-अपमान को जीवन भर अपने पर लेती हो
अर्ध वय में उसी पुरुष के धिक्कार कैसे सह लेती हो
अल्हड़पन में मेरी कटु वाणी के तिरस्कार सुन चुप रह लेती हो
माँ तुम मेरी नासमझी को सहज ही कैसे सह लेती हो
जब झगड़ते -जूझते थे हुम और डांट तुम्हे ही पड़ती थी
तब नहीं विचार किया ये बहना कैसे चुप रह सह लेती हो
अपराध बोध को क्रोध से ढांक कर जब तुम पे बरसूँ मै
अपने रोष को प्रिये तुम मीठी मुस्कान से छुपा लेती हो
तुम्हारे स्वप्न, तुम्हारी आशाएं, तुम्हारी आकाँछाएं सखी
मेरी व्यर्थ कामनाओं पे सहज निछावर कर देती हो
अर्ध वय में उसी पुरुष के धिक्कार कैसे सह लेती हो
अल्हड़पन में मेरी कटु वाणी के तिरस्कार सुन चुप रह लेती हो
माँ तुम मेरी नासमझी को सहज ही कैसे सह लेती हो
जब झगड़ते -जूझते थे हुम और डांट तुम्हे ही पड़ती थी
तब नहीं विचार किया ये बहना कैसे चुप रह सह लेती हो
अपराध बोध को क्रोध से ढांक कर जब तुम पे बरसूँ मै
अपने रोष को प्रिये तुम मीठी मुस्कान से छुपा लेती हो
तुम्हारे स्वप्न, तुम्हारी आशाएं, तुम्हारी आकाँछाएं सखी
मेरी व्यर्थ कामनाओं पे सहज निछावर कर देती हो
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नीच पशु सम पुरुषों के कथित कलापों का मिथ्या जब
दोष मढ़ता समाज तुम्ही पर, सुन कर तुम चुप रह लेती हो
असीमित है सहने कि क्षमता तुम्हारी, देख चूका है ये विश्व सभी
निष्पाप निष्कलंक निरपराध फिर सब कलंक क्यूँ अपने सर लेती हो
अब समय बस यही शेष है, दिखला दो इन्हें वो प्रताप वीरांगना
अपराध है अब चुप रहना-सहना, अपराध करोगी जो अब भी सहती हो
Loved this one! Very well written.
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